Friday, November 13, 2020

First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान






कोविद-19 ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इसका असर जीवन के हर पहलू पर पड़ा है। इस महामारी ने आवागमन के बुनियादी ढांचे को लेकर भी नए सिरे से सोचने पर विवश कर दिया है। 

आज कारों और बसों वाली सार्वजनिक परिवहन प्रणाली की तुलना में साइकिल एक परिपूर्ण, सस्ती और प्रदूषण रहित विकल्प के रूप में सामने आई है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की एक रिपोर्ट के अनुसार, बहुधा एक शहर में पैदल चलने और साइकिल चलाने वालों की संख्या सर्वाधिक होती हैं। आबादी के इस वर्ग में निवेश करके मानव-जीवन का बचाव संभव है, जो कि पर्यावरण सुरक्षा और गरीबी उन्मूलन में भी सहायक है। खराब जलवायु परिवर्तन के विरुद्व साइकिल व्यक्ति की रक्षा का एक प्रभावी प्रतीक बनकर उभरी है। 

भारत में साइकिल खासी लोकप्रिय रही है।इसी साइकिल की सुरक्षा के लिए गोदरेज ने नवंबर, 1962 में एक साइकिल लॉक (ताले) बनाकर अपनी धाक जमाई थी। यह अलग बात है कि आज दुनिया बहुत आगे बढ़ चुकी है और साइकिल लाॅक जैसी चीजें बहुत सामान्य हो चुकी है।

भारतीय इतिहास में झांकने पर पता चलता है कि ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से मुक्ति-संघर्ष में साइकिल का गहरा संबंध था। तब साइकिल, देसी उद्योगों के उत्पादन में वृद्वि और भारतीयों के स्वभाव में स्वदेशी के उपयोग के भाव को जागृत करने वाली वस्तु थी। स्वतंत्रता पूर्व, भारत आयातित साइकिलों पर ही निर्भर था, लेकिन फिर भी साइकिल के स्वदेशी महत्वाकांक्षाओं से जुड़े होने के कारण उसकी लोकप्रियता और उपलब्धता में वृद्वि हुई थी। 

1950 के दशक में साइकिल उन पहली आधुनिक उपभोक्ता वस्तुओं में से एक थी, जिसका उपयोग ग्रामीण समाज के निचले स्तर तक हुआ था।  

अंग्रेज भारत में पहली साइकिल का आगमन वर्ष 1890 में हुआ। साइकिल का नियमित आयात वर्ष 1905 में आरंभ हुआ जो कि आधी सदी तक जारी रहा। आजादी के बाद, स्वदेशी साइकिल उद्योग को बढ़ावा देने के हिसाब से सरकार ने वर्ष 1953 में विदेशी साइकिलों के आयात पर रोक लगा दी। भारतीय समाज में परिवहन के एक सस्ते साधन के रूप में साइकिल की उपस्थिति के कारण साइकिल उद्योग से जुड़े विभिन्न कलपुर्जों का एक बड़ा देसी बाजार विकसित हुआ। बहुप्रचलित साइकिल लॉक (ताला) एक ऐसा ही महत्वपूर्ण सुरक्षा उपकरण था। दुनिया में साइकिल लॉक के आविष्कार की कोई निश्चित तिथि तो नहीं है। पर भारत में सबसे पहले गोदरेज कंपनी ने नवंबर, 1962 में साइकिल लाॅक बनाया था। पांच-पिन वाला यह गोलाकार बंद ताला चाबी लगाकर घुमाने पर ही खुलता था। बम्बई के लालबाग पारेल स्थित गोदरेज कार्यालय ने पूरे देश के अपने स्टॉकिस्टों-डीलरों को एक पत्र लिखकर साइकिल लाॅक के अपने नए उत्पाद के बारे में बताया था। तब एक साइकिल लाॅक की कीमत चार रुपए रखी गयी थी।


Friday, November 6, 2020

Mahatma Gandhi in Rajasthan_Ajmer_राजस्थान में महात्मा गांधी_अजमेर-मेरवाड़ा



अंग्रेज भारत में अजमेर-मेरवाड़ा को छोड़कर उस समय का सारा राजपूताना देशी राजाओं के अधीन था। जबकि देश की स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत मोहनदास कर्मचंद गांधी मानना था कि राजा-रजवाड़े तो अंग्रेजी हुकूमत के सहारे टिके हुए हैं, अतः अंग्रेजों की गुलामी से भारत को मुक्त करने में ही सारी ताकत लगाई जाए। यही कारण था कि वह देशी राज्यों में गए ही नहीं। ऐसे में, गांधी अपने पूरे जीवन में गिनती के तीन बार राजस्थान और उसमें भी केवल अजमेर ही आए।  

भारत आने के पश्चात गांधी पहली बार वर्ष 1921 में अजमेर आएं। उनकी इस यात्रा के विवरण की पुष्टि गांधी के वलजी देसाई को दिनांक 2 नवंबर, 1921 को लिखे एक पत्र से मिलती है। गांधी अपने पत्र में देसाई को लिखते हैं, "कृपया प्रेस को 'यंग इंडिया' के प्रूफ केवल इस बार के लिए राजस्थान सेवा संघ, अजमेर के पते पर भेजने का अनुरोध करे। उन्हें यह सामग्री बुधवार शाम या गुरुवार सुबह जल्दी डाक में देनी चाहिए, जिससे प्रूफ की सामग्री सुबह की डाक से अजमेर पहुँच सकें।" अजमेर, 3 नवंबर, 1921 के डाक ठप्पे (पोस्टमार्क) वाला यह पत्र गांधी ने दिल्ली जाते समय लिखा था। इससे पता चलता है कि दिल्ली से ही 11 नवंबर, 1921 (बुधवार) को अजमेर आएं। गांधी सुबह पुरानी मंडी की संकरी गलियों में स्थित नेशनल स्कूल और फिर ख्वाजा गरीब नवाज की दरगाह गए। जहां उन्होंने दरगाह पर एक चादर पेश की।


कांग्रेस के 26-30 दिसंबर, 1920 को नागपुर अधिवेशन में सी. विजयाराघवाचारी की अध्यक्षता में गांधी के अहिंसा-असहयोग के माध्यम से पूर्ण स्वराज की प्राप्ति का प्रस्ताव स्वीकार हो गया था। इसकी गूंज देश भर में थी। फिर ऐसे में भला राजस्थान अछूता कैसे रहता! 

उल्लेखनीय है कि नागपुर अधिवेशन में ही गांधी ने कांग्रेस के विधान में कांग्रेस का ध्येय ब्रिटिश भारत से बढ़ाकर देशी राज्यों सहित समूचे भारत के लिए स्वराज्य तय कराया, रियासती जनता को कांग्रेस में प्रतिनिधित्व दिलवाया और अजमेर मेरवाड़ा, राजपूताना और मध्यभारत को अलग प्रान्तीय इकाई बनवाया। तब राजस्थान और मध्य भारत राजनीतिक दृष्टि से एक ही इकाई माने जाते थे, और अजमेर इसका केन्द्र था।

इससे पहले, विजय सिंह पथिक की अध्यक्षता में रामनारायण चौधरी और हरिभाई किंकर ने मिलकर वर्धा में वर्ष 1919 में राजस्थान सेवा संघ की स्थापना की थी। जिसका उद्देश्य राजस्थान की विभिन्न रियासतों में चलने वाले आन्दोलनों को गति देना था। वर्ष 1920 में राजस्थान सेवा संघ का कार्यालय अजमेर स्थानांतरित हो गया। अजमेर में राजस्थान सेवा संघ कार्यकर्ताओं ने असहयोग आंदोलन में बढ़ चढ़ कर भाग लिया था।

राजस्थान राज्य गांधी स्मारक निधि की गांधी शताब्दी में प्रकाशित (1969) "गांधीजी और राजस्थान" शीर्षक वाली पुस्तक के अनुसार, "वह कुल तीन बार अजमेर आएं। पहली बार सन् 1921 में आये जब मौलाना मोहम्मद अली भी साथ थे। गांधीजी के प्रयत्न से ख्वाजा साहब की दरगाह में खिलाफत वालों से समझौता हुआ। दरगाह में मौलाना मोहम्मद अली और गांधीजी के महत्वपूर्ण भाषण हुए और उस समय अजमेर में हिन्दू-मुस्लिम इत्तिहाद का ऐसा वातावरण बना कि देखते ही बनता था। गांधीजी उस समय गौरीशंकर भार्गव के यहां ठहरे थे।"




8 दिसंबर, 1921 को 'यंग इंडिया' में गांधी ने "नैराश्य भाव नहीं" के शीर्षक वाली टिप्पणी में लिखा, "पंजाब में क्या होगा जहां लालाजी (लाजपत राॅय) को कैद किया जाना है और असम में जहां (तरुण राम) फुकन और (गोपीनाथ) बोरदोलोई को पहले ही दोषी ठहराया जा चुका है और इसी तरह अजमेर में भी, जहां खिलाफत और कांग्रेस कमेटी दोनों के अध्यक्ष मौलाना मुउइद्दीन को कैद कर लिया गया है? चिंतित जिज्ञासुओं का ऐसा ही सवाल था। मेरा जवाब था कि इन प्रमुखों के उत्पीड़न से आंदोलन को गति मिलेगी। इन व्यक्तियों को मिले कारावासों के परिणामस्वरूप, मुझे इन प्रांतों में अधिक संयम और दायित्व की भावना की अपेक्षा है। मुझे काती हुई खादी के अधिक उत्पादन, छात्रों और वकीलों में व्यापक जागरूकता की उम्मीद है। अगर हम अपने स्वशासन के लिए उपयुक्त है तो इन नेताओं की बहादुरी सर्वव्यापक प्रभाव होना चाहिए।"

दूसरी बार गांधी, वर्ष 1922 में दो दिनों के लिए अजमेर आएं। वे अहमदाबाद से 8 मार्च की शाम को रेलयात्रा करते हुए अगले दिन (9 मार्च) अजमेर पहुंचे। गांधी बम्बई के राष्ट्रवादी मुस्लिम नेता मियां मुहम्मद हाजी जन मुहम्मद छोटानी के निमंत्रण पर मुस्लिम उलेमाओं के सम्मेलन में भाग लेने आए थे। यहां उन्होंने खिलाफत को लेकर अपने विचार रखें। अनेक अनौपचारिक रिकॉर्डों के अनुसार, गांधी ने ऑल इंडिया खिलाफत कांफ्रेंस नामक उलेमा संस्था को संबोधित करने के लिए अजमेर का दौरा किया। इस तथ्य का उल्लेख वर्ष 1952 में प्रकाशित "मोइनुल अरवाह" में है।

बारडोली में कांग्रेस की कार्य समिति ने चौरी चौरा में जनता के पुलिस थाना जला दिये जाने और कुछ सिपाहियों के मार दिये जाने के कारण असहयोग आन्दोलन स्थगित कर दिया था। गांधी पर गिरफ्तारी का वारंट निकल चुका था, उस समय वे अजमेर में ही मौजूद थे मगर यहां की सरकार उन्हें गिरफ्तार करने की जिम्मेदारी लेने का साहस नहीं किया। वे गुजरात की सीमा में पहुंच कर पकड़े गये। उल्लेखनीय है कि अहमदाबाद के पुलिस अधीक्षक ने 6 मार्च को ही गांधी के नाम गिरफ्तारी का वारंट जारी करके फाइल को असिस्टेंट मजिस्ट्रेट ब्राउन के पास भेज दिया था। गांधी के सूरत और अजमेर में होने की संभावना के कारण इन दोनों स्थानों के पुलिस अधीक्षकों को भी वारंट भेज दिए गए थे।

जबकि गांधी 9 मार्च की रात को अजमेर से वापिस अहमदाबाद लौटे। अगले ही दिन (10 मार्च) अहमदाबाद पहुंचते ही अंग्रेज सरकार ने गांधी को गिरफ्तार करके साबरमती जेल में कैद कर दिया। गांधी ने उसी दिन मगनलाल गांधी को भेजे एक पत्र में अपने गिरफ्तार होने की बात लिखी थी। ऐसे में, उनकी गिरफ्तारी की आशंका सच सिद्व हुई।

लखनऊ से आये मौलवी अब्दुल बारी ने अजमेर में आयोजित एक सभा में जीभ पर नियंत्रण खोकर ऐसा भाषण दिया जिससे जनता में यह संदेश गया कि चूंकि अहिंसक आंदोलन विफल रहा है अतः हिंसा का सहारा लिया जायेगा। उनका भाषण काफी उग्र था। इससे अजमेर की जनता में बेचैनी फैल गई। गांधीजी ने संदेह उत्पन्न करने वाला बयान देने के लिये मौलवी अब्दुल बारी की निंदा की। इस पर पहले से ही अप्रसन्न मुस्लिम नेता हसरत मोहानी ने मौलवी अब्दुल बारी का पक्ष लिया। गांधीजी के सामने ही (गौरीशंकर) भार्गव के निवास पर मौलवियों और उलेमाओं के बीच तीखी बहस हुई। हसरत मोहानी गांधीजी से इसलिए नाराज थे क्योंकि उसने एक बार कांग्रेस के समक्ष पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव रखा था जिसे गांधीजी ने अस्वीकार कर दिया था। महात्मा गांधी के समक्ष पहली बार अहिंसात्मक और हिंसात्मक आंदोलन पर खुलकर बहस हुई जिसमें एक तरफ मौलवी अब्दुल बारी तथा हसरत मोहानी थे जबकि दूसरी तरफ गांधीजी और बाकी के सारे उलेमा थे। इस बहस में गांधीजी जीत गये। इसके बाद गांधीजी ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर गये जहां गांधीजी का भारी स्वागत किया गया। 

गांधी ने 9 मार्च, 1922 को अजमेर में अब्दुल बारी से भेंट करने के बाद ही उन्हें जनता के नाम अपना संदेश जारी करने के लिए सौंपा दिया था। 10 मार्च को अहमदाबाद में गांधी की गिरफ्तारी के बाद अब्दुल बारी ने 15 मार्च को लखनऊ से जनता के नाम गांधी का संदेश समाचार पत्रों को जारी किया। इस संदेश में चार मुख्य बातें थीं। पहला, उनकी गिरफ्तारी पर कोई प्रदर्शन या हड़ताल नहीं होनी चाहिए। दूसरा, सार्वजनिक स्तर पर सविनय अवज्ञा आंदोलन नहीं किया जाएगा और अहिंसा का सख्ती से पालन होगा। तीसरा, अस्पृश्यता और नशे को दूर करने पर पूरा ध्यान दिया जाना चाहिए और खद्दर के उपयोग को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। और चौथा, उनकी गिरफ्तारी के बाद, जनता को नेतृत्व के लिए हकीम अजमल खान की बात माननी चाहिए।




इस विषय में गुजराती ‘नवजीवन’ में 19 मार्च, 1922 को दिए एक साक्षात्कार में गांधी ने कहा, ‘‘अजमेर में एक बड़े काम पूरा किया गया। मौलाना अब्दुल बारी ने एक तगड़ा भाषण दिया, जिसने वहां जमा हजारों मुसलमानों में पूरी तरह से जोश भर दिया। जब मैं वहां गया तो कइयों का मानना था कि हम दोनों के बीच तकरार होगी और हिंदू-मुस्लिम एकता टूटेगी। मैंने उनसे कहा कि आप आज जो कुछ भी करोगे, वह केवल गुस्से में होगा। मौलाना ने मेरी बात को पूरी तरह से समझा और अब मुझे उनको लेकर बिल्कुल भी चिंता नहीं है। मौलाना हसरत मोहानी भी वहां थे। उन्होंने मुझसे वादा किया है कि वे हिंसा की जरा-सी भी तरफदारी न करके कांग्रेस के काम में बाधाएं नहीं पैदा करेंगे। सो, अब मैं चिंता से मुक्त हूं।’’ उल्लेखनीय है कि अब्दुल बारी (1838-1926) और हसरत मोहानी (1875-1951) खिलाफत आंदोलन में सक्रिय राष्ट्रवादी मुस्लिम नेता थे।

फिर गांधी तीसरी और अंतिम बार, जुलाई 1934 में अजमेर आए। उस वर्ष वे पूरे देश में नौ महीने की हरिजन यात्रा पर निकले थे। गांधी, 3 जुलाई 1934 को भावनगर (काठियावाड़) से रेलगाड़ी से रवाना होकर अगली रात (4 जुलाई) को अजमेर पहुंचे। इस रेल यात्रा में उन्होंने मेहसाणा और पालनपुर स्टेशनों पर भी जनता को संबोधित किया। राजपूताना हरिजन सेवक संघ के निमंत्रण पर अजमेर यात्रा पर आए गांधी कचहरी रोड स्थित एक कोठी पर ठहरे। गांधी की इस यात्रा के प्रबन्धन के लिए एक स्वागत समिति बनी। इस समिति के अध्यक्ष दीवान बहादुर हरविलास शारदा, और रामनारायण चौधरी तथा कृष्णगोपाल गर्ग मंत्री थे।

अजमेर में 5 जुलाई 1934 की सुबह गांधी महिलाओं की एक सभा में गए। उन्होंने वहां पर उपस्थित स्त्रियों को संबोधित करते हुए कहा, "अस्पृश्यता प्रेम और दया की भावना के विपरीत है, इसलिए इस पाप का अन्त अवश्य होना चाहिए। एक ओर तो हम प्रेम भाव का दावा करें और दूसरी ओर अपने ही लाखों करोड़ों भाईयों को गन्दी से गन्दी जगह में रखें, उन्हें कुंओं से पानी न भरने दें, पशुओं के गन्दले हौजों से उन्हें पानी पीने के लिए मजबूर करें और अगर सार्वजनिक कुओं पर ये बेचारे अपना हक समझ कर पानी भरने जाएं तो उन पर आक्रमण कर बैठें। यह दोनों बातें भला एक साथ कैसे हो सकती है? इसी प्रकार जब सवर्णों के गन्दे बच्चे खासी अच्छी तादाद में स्कूल-मदरसों में जा सकते हैं, तब हरिजन बच्चों को, उनके सफाई से रहते हुए भी सार्वजनिक स्कूलों में अलग रखना कहां तक उचित है, कहां तक न्याय संगत है? दूसरों को अपने से नीच समझना एक प्रकार का अभिमान है जिसे तुलसीदास जी ने सब पापों का मूल कहा है पाप मूल का (अभिमान) और अभिमान तो नाशकारी ही है।"

गांधी राजपूताना के हरिजन सेवकों से भी मिले। हरिजन सेवकों ने बेगार प्रथा की शिकायत की। फिर गांधी ने राजस्थान चरखा संघ के कार्यकर्ताओं से भेंट की। इन कार्यकर्ताओं ने गांधी को खादी प्रचार के साथ-साथ हरिजन सेवा कार्य की जानकारी दी। उल्लेखनीय है कि वर्ष 1926 में अमरसर (जयपुर) के खादी केन्द्र में एक हरिजन पाठशाला स्थापित की गई थी। पाठशाला का यह प्रयोग इतना सफल रहा कि दूसरे वर्गों के बच्चों ने भी दाखिला लिया और उसमें बिना किसी भेदभाव के पढ़ने लगे। 

इस अवसर पर उस दिन गांधी ने हरिजन सेवकों को भी संबोधित किया। उन्होंने कहा, "मैं चाहता हूं कि पूरी सच्चाई और ईमानदारी से हमारे सेवक हरिजनों की सेवा करें। सेवा का फल मेवा ही है। स्वार्थ या किसी राजनीतिक उद्देश्य का तो इसमें लेश भी नहीं होना चाहिए। हमारा मुख्य लक्ष्य तो हिन्दू धर्म की शुद्वि है। इस आंदोलन में तो केवल उन्हीं को भाग लेना चाहिये जो सत्य और अहिंसा का सिद्वान्त स्वीकार कर चुके हों, और जिनका यह विश्वास हो कि हरिजन हिन्दू धर्म का अविच्छेद अंग हैं।"

तब गांधी अजमेर की हरिजन बस्तियों में भी गए। उन्होंने पहले दिल्ली दरवाजे की हरिजन बस्ती, तारागढ़ के ढाल में बसी मलूसर की हरिजन बस्ती सहित रैगरों के मुहल्ले को देखा। इस अवसर पर आनासागर की पाल पर एक सार्वजनिक सभा हुई। राजपूताना हरिजन सेवक संघ की ओर से गांधी को एक मानपत्र दिया गया। जिसमें राजपूताना के हरिजनों की तत्कालीन धार्मिक और सामाजिक स्थिति का वर्णन था। 

उस दिन सभा-स्थल पर एक खेदजनक घटना के कारण विघ्न उत्पन्न हुआ। इसके मूल में सनातनी नेता बाबा लालनाथ के अपने जत्थे के साथ गांधी के हरिजन आंदोलन के प्रति अपना विरोध प्रकट करने के लिए अजमेर पहुंचना था।  

बाबा लालनाथ ने गांधी से मिलकर अजमेर की सभा में बोलने का अनुरोध किया। गांधी ने उनके प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए उनसे सभा में गांधी के पहुंचने के बाद आने की बात कही। जबकि दुर्भाग्यवश बाबा लालनाथ अपने दल, जो काले झण्डे लिए हुआ था, के साथ गांधी के आने से पहले ही सभास्थल पर पहुंच गए। ऐसे में, वहां उपस्थित जनता से उनकी मुठभेड़ हुई। एक व्यक्ति ने बाबा लालनाथ के सिर पर लाठी मारी, जिससे खून बहने लगा। गांधी को इस घटना का पता चलने पर उन्होंने बाबा लालनाथ को बुलाकर मंच पर अपने पास बिठाया और उनकी चोट पर पट्टी बांधी। 

इस पर गांधी ने अपने भाषण में कहा, "काली झण्डी वालों को साथ लेकर पंडित लालनाथ को सभा में आने और हमारे आन्दोलन के विरूद्ध प्रदर्शन का पूरा अधिकार था। जिस किसी ने उन पर हमला किया है, उसने बहुत बड़ी अशिष्टता की है। काली झण्डियां सुधारकों का क्या बिगाड़ सकती थीं, किन्तु पंडित लालनाथ पर जो यह वार हुआ है उससे निश्चय ही हरिजन कार्य को क्षति पहुंची है। हिंसापूर्ण तरीकों से अस्पृश्यता का यह काला दाग कदापि नहीं मिट सकता। मैं तो राजनीतिक वातावरण में भी हिंसा को बर्दाशत नहीं कर सकता, फिर यह तो धर्म क्षेत्र है।"

गांधी ने इसके बाद लालनाथ को सभा को संबोधित करने का अनुरोध किया। वह दो ही मिनट बोले थे कि लोग "शेम शेम" की आवाज पुकारने लगे और उनका बोलना मुश्किल हो गया। 

ऐसा होने पर गांधी ने जनसमुदाय को डांटते हुए कहा, "यह तो आप लोगों की बहुत बड़ी अशिष्टता है। एक तो पहले ही उन पर वार करके अविनय का काम किया गया और अब उनकी बात सुनने से इन्कार करके आप यह दूसरी अशिष्टता कर रहे हैं। अगर आप पंडित लालनाथ की बात सुनने को तैयार नहीं, तो इसका यह मतलब हुआ कि आप मेरी भी बात सुनना नहीं चाहते। हरिजन सेवा एक धार्मिक प्रवृति है। इसमें असहिष्णुता का हिंसा के लिए स्थान नहीं है। 

मान लीजिए कि कोई मुझ पर ही घात हमला कर बैठे, तो क्या आप आपे से बाहर हो जायेगे और पागल की तरह हिंसा पर उतारू हो जायेंगे? ऐसा है तो मैंने व्यर्थ ही आपके आगे अपना जीवन बिताया। ऐसा करके तो आप विशाल आन्दोलन को ही खत्म कर देंगे। पर यदि आपने संयम से काम किया तो मेरे शरीर के अन्त के साथ साथ इस अस्पृश्यता का अन्त भी निश्चित है।" इस पर लोग चुप हो गये और उन्होंने लालनाथजी का भाषण शांति पूर्वक सुना।

अजमेर सभा में गांधी को मानपत्र सहित एक थैली भी भेंट की गई। पूरे दिन में गांधी को अजमेर में हरिजन कोष के लिए कुल 4942 रुपए प्राप्त हुए। इस प्रवास में गांधी अजमेर के पुराने कांग्रेसी नेता अर्जुनलाल जी सेठी और अजमेर में अपने पुराने मेजबान गौरीशंकर भार्गव के घर भी गए।

6 जुलाई 1934 की भोर को गांधी मोटर से अजमेर से ब्यावर के लिए निकल गये। वे ब्यावर में चम्पालाल रामेश्वर क्लब की इमारत में ठहरे। यहां गांधी ने ब्यावर में ब्राह्मण समाज में पहला विधवा विवाह करने वाले नवदम्पति को आर्शीवाद भी दिया। ब्यावर के मिशन ग्राउण्ड में गांधी ने एक सार्वजनिक सभा को संबोधित किया। उल्लेखनीय बात यह थी कि गांधी से अत्याधिक प्रभावित शहर के जैन साधु चुन्नीलाल ने साधुओं की जैन परम्परा का त्याग कर सार्वजनिक सभा में हरिजन कोष के लिए धन संग्रह किया। वे अपने एक और साथी जैन लक्ष्मी ऋषि के साथ गांधी के रचनात्मक कार्यों में लग गये। ब्यावर की सभा में कुछ जैन साधुओं ने गांधी को मानपत्र दिया। इस मानपत्र में जैन धर्म में अस्पृश्यता के लिए स्थान नहीं होने और हरिजन सेवा के लिए तैयार होने की बात कही गई थी। 

गांधी को ब्यावर में हरिजन कोष के लिए 1152 रुपए मिले। यहां भी गांधी शहर की हरिजन बस्तियों में गए। फिर गांधी ब्यावर से रेल मार्ग से मारवाड़ जक्शन होते हुए कराची के लिए निकल गए। वे रेल यात्रा के दौरान भी जनता से मिलते गए। यहां तक कि उन्हें मारवाड़ जंक्शन, लूणी और गडरा रोड स्थानों से हरिजन कोष के लिए 992 रुपए प्राप्त हुए।

गांधी ने 10 जुलाई 1934 को कराची में अजमेर की हिंसक घटना के प्रायश्चित स्वरूप 7 अगस्त से 14 अगस्त 1934 तक वर्धा में अनशन की घोषणा की। गांधी ने कहा कि काफी हृदय मंथन करने के बाद वह इस निश्चय पर पहुंचे हैं और उनका यह व्रत उन सब लोगों को, जो इस आन्दोलन में हैं या आगे शामिल होंगे, यह चेतावनी है कि उन्हें मनसा, वाचा, कर्मणा, असत्य तथा हिंसा से अलग रह कर ही शुद्व हृदय से उसमें भाग लेना चाहिए।

वर्धा में उपवास की समाप्ति के बाद, गांधी ने 'हरिजन' (17 अगस्त 1934) में लिखा, "इस उपवास का उद्देश्य कहने के लिए तो अजमेर में हरिजन प्रवृति समर्थकों द्वारा स्वामी लालनाथ और उनके साथियों को जो चोट पहुंचाई गई थी, उसके लिए प्रायश्चित करना था, पर असल में उसका उद्देश्य इस आन्दोलन से सहानुभूति रखने वालों तथा  कार्यकर्ताओं से यह अनुरोध करना था कि वे अपने विरोधियों के साथ चौकस और शुद्ध व्यवहार करें। विरोधियों के प्रति अधिक से अधिक सौजन्य दिखाना आन्दोलन के हक में सबसे सुन्दर प्रचार कार्य होगा। कार्यकर्ताओं को इस सत्य का ज्ञान कराने के लिए यह उपवास किया गया था कि हम अपने विरोधियों को प्रेम के बल ही जीत सकते हैं, घृणा से कभी नहीं।"


Rajasthan Government magazine_Sujas_Gandhi Issue_सुजस_महात्मा गांधी एकाग्र_राजेश कुमार व्यास




राजस्थान सरकार के सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग की मासिक पत्रिका "सुजस" का सितंबर-अक्तूबर संयुक्तांक "महात्मा गांधी एकाग्र" है। पत्रिका के संपादक डाक्टर राजेश कुमार व्यास के कुशल संपादन में निकला यह अंक गांधी के जीवन और विचार को सांगोपांग समेटने के कारण गागर में सागर है। 


राजस्थान के राज्यपाल कलराज मिश्र ने गांधी विचार के साथ गांधी व्यवहार की प्रासंगिकता को रेखांकित किया है तो मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भी गांधी के ट्रस्टीशिप सिद्वांत को जनहित में व्यावहारिक रूप में क्रियाशील बनाने की बात को रखा है। जबकि सूचना एवं जनसंपर्क आयुक्त महेन्द्र सोनी ने गांधीजी के 150 वें जन्म शताब्दी वर्ष पर उनके जीवन दर्शन पर केन्द्रित अंक निकालने की आवश्यकता जताई। 

इन औपचारिक अवदानों के अलावा कुल 92 रंगीन पृष्ठों की इस सरकारी पत्रिका में राजीव कटारा का 'गांधी की प्रासंगिकता', अरविन्द मोहन का 'सार्वजनिक धन को लेकर गांधी का अनुशासन', सच्चिदानंद जोशी का 'सम्प्रेषणीयता पर जीवन ही संदेश', आनंद प्रधान का 'संपादक-पत्रकार गांधी', मंगलेश डबराल का 'गांधी और काव्य,' दीपक मंजुल का पुस्तकों 'लेखक-अनुवादक गांधी', कमल किशोर गोयनका का 'हिन्द स्वराजः आधुनिक भारतीयता', अभिषेक कुमार मिश्र का 'मानवतायुक्त विकास की वैज्ञानिक दृष्टि', चंद्रकुमार का 'सत्याग्रही वैज्ञानिक', अजय जोशी का 'गांधी का आर्थिक चिन्तन', राजेन्द्र प्रसाद का 'महात्मा गांधी का कला चिन्तन', गजादान चारण का 'राजस्थानी लोक मानस में गांधी', सन्त समीर का 'हिंसा-अहिंसा और गांधी', देवर्षि कलानाथ शास्त्री का 'गांधी अभिनन्दन ग्रंथ', नलिन चौहान का 'राजस्थान में गांधी', राकेश कुमार का 'महात्मा गांधी का जीवन', देवेन्द्र सत्यार्थी का 'जय गांधी', इष्ट देव सांस्कृत्यायन का 'गांधी का ग्राम स्वराज', हरिशंकर शर्मा का 'गांधी संग्रहालय शीर्षक' से लेख संकलित हैं। 


'सुजस' पत्रिका के संपादक डाक्टर राजेश कुमार व्यास के अनुसार, "गांधीजी के जन्म से लेकर जीवन की प्रमुख घटनाओं के आलोक में उनकी सम्पूर्ण जीवनी यहां तिथिवार पाठकों के लिए दी गई है। महात्मा गांधी को महात्मा के नाम से सबसे पहले 1915 में राजवैद्य जीवराम कालिंदास ने संबोधित किया था। एक अन्य मत के अनुसार स्वामी श्रद्वानंद ने 1915 में महात्मा की उपाधि दी थी, तीसरा मत ये है कि गुरु रविंद्रनाथ टैगोर ने महात्मा की उपाधि प्रदान की थी। उन्हें बापू के नाम से भी याद किया जाता है। गांधीजी को बापू संबोधित करने वाले प्रथम व्यक्ति उनके साबरमती आश्रम के शिष्य थे। सुभाषचंद्र बोस ने 6 जुलाई, 1944 को रंगून रेडियो से गांधीजी के नाम जारी प्रसारण में उन्हें राष्ट्रपिता कहकर सम्बोधित करते हुए आजाद हिन्द फौज के सैनिकों के लिए उनका आर्शीवाद और शुभकामनाएं मांगी थीं"।


First Indian Bicycle Lock_Godrej_1962_याद आया स्वदेशी साइकिल लाॅक_नलिन चौहान

कोविद-19 ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया है। इसका असर जीवन के हर पहलू पर पड़ा है। इस महामारी ने आवागमन के बुनियादी ढांचे को लेकर भी नए सिरे ...